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ग़ज़ल
ज़ख़्म को फूल कहें नौहे को नग़्मा समझें
इतने सादा भी नहीं हम कि न इतना समझें
बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
ग़ज़ल
हर्फ़ लिखूँ तो पढ़ने वाले क्या क्या नौहे सुनते हैं
कान धरूँ तो इन हर्फ़ों में सौत-ओ-सदा कोई भी नहीं