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ग़ज़ल
जहान भर की तमाम आँखें निचोड़ कर जितना नम बनेगा
ये कुल मिला कर भी हिज्र की रात मेरे गिर्ये से कम बनेगा
उमैर नजमी
ग़ज़ल
यक-क़तरा ख़ूँ बग़ल में है दिल मिरी सो उस को
पलकों से तेरी ख़ातिर क्यूँ-कर निचोड़ डालूँ