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ग़ज़ल
कल वाइ'ज़ों के हाँ भी तिरा ज़िक्र-ए-ख़ैर था
ये नेक-बख़्त क्यों तिरे मुश्ताक़ हो गए
सय्यद यूनुस एजाज़
ग़ज़ल
नेक-ओ-बद जब तिरी मर्ज़ी पे हुए हैं मौक़ूफ़
बख़्त कहते हैं किसे और ये क़िस्मत क्या है
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
कभी क़स्द-ए-हरम को जब क़दम अपना उठाता हूँ
मिरे हर इक क़दम पर इक नया बुत-ख़ाना आता है