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ग़ज़ल
उठी है जो क़दमों से वो दामन से अड़ी है
क्या क्या निगह-ए-शौक़ पे ज़ंजीर पड़ी है
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
बे-शक बहुत कठिन है यारो ये टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी
लेकिन ज़ीस्त की मंज़िल तक जाती है दिल की ही पगडंडी
शुरेश चंद्र शौक
ग़ज़ल
ज़िंदगी को इक मुसलसल इम्तिहाँ कहते रहे
लग़्ज़िश-ए-पा को ही मंज़िल का निशाँ कहते रहे