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ग़ज़ल
ग़ैर के कहने से मारा उन ने हम को बे-गुनाह
ये न समझा वो कि वाक़े में भी कुछ था या न था
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
नहीं लाज़िम है देना हाथ से शेवा तरह्हुम का
हुई वाक़े' 'ज़का' से कुछ अगर तक़्सीर इंसाँ है
ज़का मीर औलाद मोहम्मद ख़ान
ग़ज़ल
जुदा हम से हुआ था एक दिन जो अपने यारों में
ख़बर फिर कुछ न पाई क्या हुआ वाक़े' ख़ुदा जाने
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
वाक़े' में ये है हर्फ़-ए-शिकायत भी क्या कहें
निकला न कोई जो मिरा अरमाँ तमाम-उम्र
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता नहीं
तिरी दास्ताँ कोई और थी मिरा वाक़िआ कोई और है