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ग़ज़ल
विसाल-ए-यार का वा'दा है फ़र्दा-ए-क़यामत पर
यक़ीं मुझ को नहीं है गोर तक अपनी रसाई का
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
बढ़ाओ वा'दा-ए-फ़र्दा पे तुम अपनी इबादत भी
कि फ़र्दा क्या न भूलूँगा मैं फ़र्दा-ए-क़यामत भी
नादिर काकोरवी
ग़ज़ल
हम को तो रोज़-ए-हश्र का भी कुछ यक़ीं नहीं
क्या मुंतज़िर हूँ वादा-ए-फ़र्दा-ए-यार के
गोपाल मित्तल
ग़ज़ल
गुज़रेगा रोज़-ए-हश्र भी अब इंतिज़ार में
शामिल है ये भी वादा-ए-फ़र्दा-ए-यार में
अब्दुस्सलाम नदवी
ग़ज़ल
दिल फिर शिकार-ए-वा'दा-ए-फ़र्दा-ए-दोस्त है
फिर से हुए हैं मौत के सामाँ नए नए
बेगम मुम्ताज़ मिर्ज़ा
ग़ज़ल
शायद इस कल से मुराद हुआ करती है क़यामत की दूरी
'ज़ौक़ी' से वो अपने जब भी कभी कल का वा'दा फ़रमाते हैं
मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी
ग़ज़ल
क़यामत है जो ऐसे पर दिल-ए-उम्मीद-वार आए
जिसे वादे से नफ़रत हो जिसे मिलने से आर आए
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
तेरे आशिक़ को तलब गुल की न गुलज़ार की थी
जोश-ए-वहशत में हवस वादी-ए-पुर-ख़ार की थी
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
नज़र उन की नज़र से मेरी टकराई तो क्या होगा
क़यामत जिस को कहते हैं वो यूँ आई तो क्या होगा