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ग़ज़ल
मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में
चाहा इधर घटा दिया चाहा उधर बढ़ा दिया
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
ये जो लाल रंग पतंग का सर-ए-आसमाँ है उड़ा हुआ
ये चराग़ दस्त-ए-हिना का है जो हवा में उस ने जला दिया
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
कभी ये आँखें ख़ुद भी उड़ा करती थीं पतंग के साथ
दूर दरीचे से होते थे इशारे हैरत वाले
जमाल एहसानी
ग़ज़ल
ख़त आप भेजेंगे मुझ को पतंग पर लिख कर
ये डोरे जाते हुए हैं उड़ाइए न मुझे