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ग़ज़ल
इक आग़ाज़-ए-सफ़र है ऐ 'ज़फ़र' ये पुख़्ता-कारी भी
अभी तो मैं ने अपनी पुख़्तगी को ख़ाम करना है
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल
यक़ीं से और अमल से पुख़्तगी पाई अक़ीदत ने
पहुँच तेरी तो ऐ नादान बस वहम-ओ-गुमाँ तक है
दत्तात्रिया कैफ़ी
ग़ज़ल
ख़ाम ही रख के पुख़्तगी शक्ल है इक शिकस्त की
आतिश-ए-वस्ल की जगह ख़ाक-ए-फ़िराक़ दे मुझे
इदरीस बाबर
ग़ज़ल
का'बा-ओ-दैर पे मौक़ूफ़ नहीं है 'मश्कूर'
पुख़्तगी पाता है ईमान बड़ी मुश्किल से
मश्कूर मुरादाबादी
ग़ज़ल
लिखने की ये तर्ज़ थी कुछ जो लिखे था कभी
पुख़्तगी ओ ख़ामी के उस का था ख़त दरमियाँ
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
पुख़्तगी समझे हुए हैं जो तनासुब को फ़क़त
चाहिए इस्लाह उन को इस ख़याल-ए-ख़ाम की