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ग़ज़ल
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
समझते ही नहीं नादान कै दिन की है मिल्किय्यत
पराए खेतों पे अपनों में झगड़ा होने लगता है
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
'क़तील' अपना मुक़द्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
सब अपनी ज़ात में गुम हैं ये सोच कर 'नायाब'
पराए दर्द को क्यूँ दर्द-ए-सर बनाया जाए
जहाँगीर नायाब
ग़ज़ल
और दे मुझ को दे और साक़ी होश रहता है थोड़ा सा बाक़ी
आज तल्ख़ी भी है इंतिहा की आज वो भी पराए हुए हैं
नासिर निज़ामी
ग़ज़ल
जो इन की नज़र से खेले दुख पाए मुसीबत झेले
फिरते हैं ये सब अलबेले दिल ले के मुकर जाने को
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
तुम को बेगाने भी अपनाते हैं मैं जानता हूँ
मेरे अपने भी पराए हैं तुम्हें क्या मालूम