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ग़ज़ल
न की सामान-ए-ऐश-ओ-जाह ने तदबीर वहशत की
हुआ जाम-ए-ज़मुर्रद भी मुझे दाग़-ए-पलंग आख़िर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
रात को सोने को क्या क्या नर्म-ओ-नाज़ुक थे पलंग
बैठने को दिन के क्या क्या कोठे और दालान थे
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
शब-ए-माह में जो पलंग पर मिरे साथ सोए तो क्या हुए
कभी लिपटे बन के वो चाँदनी कभी चाँद बन के जुदा हुए
अहमद हुसैन माइल
ग़ज़ल
कैसे तकिए कैसे तोशक कैसा होता है पलंग
मैं वो ग़ाफ़िल हूँ मिरे घर आ के पछताती है नींद
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
दाग-दारों ने कुदूरत से बुना उन का पलंग
सुम्बुल-ए-मौज-ए-रसन में गुल है गुल में ख़ाक है