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ग़ज़ल
कर के सितम की पर्दा-पोशी हम ने उन्हें बे-ऐब किया
वर्ना 'शकील' अपने होंटों पर हर्फ़-ए-शिकायत आज भी है
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
हाँ हाँ मिरे इस्याँ का पर्दा नहीं खुलने का
हाँ हाँ तिरी रहमत का है काम ख़ता-पोशी
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
कल तक कितने हंगामे थे अब कितनी ख़ामोशी है
पहले दुनिया थी घर में अब दुनिया से रू-पोशी है
जमील मलिक
ग़ज़ल
दाद देना तुम हमारी चश्म-पोशी की हमें
राह में जो गुम थे उन को रहनुमा हम ने कहा
राजेन्द्र नाथ रहबर
ग़ज़ल
छुपाने के एवज़ छपवा रहे हैं ख़ुद वो ऐब अपने
नसीहत क्या करूँ मैं क़ौम को अब ऐब-पोशी की
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
उछाला करते हैं अक्सर 'वक़ार' औरों के ऐबों को
वो जिन को पर्दा-पोशी का हुनर अच्छा नहीं लगता