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ग़ज़ल
मुझ में पैवस्त हो तुम यूँ कि ज़माने वाले
मेरी मिट्टी से मिरे बा'द निकालेंगे तुम्हें
अभिषेक शुक्ला
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
एक सन्नाटा हूँ पत्थर के जिगर में पैवस्त
मैं कोई बुत तो नहीं हूँ कि निकल कर देखूँ
सिद्दीक़ मुजीबी
ग़ज़ल
ज़मीर-ए-वक़्त में पैवस्त हूँ मैं फाँस की सूरत
ज़माना क्या समझता है कि आसानी से निकलूँगा
ज़फ़र गोरखपुरी
ग़ज़ल
फ़रीहा नक़वी
ग़ज़ल
दिल-ए-बिस्मिल में कुछ इस तरह हुए थे पैवस्त
टूट कर निकले हैं पैकान बड़ी मुश्किल से
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
सैर के क़ाबिल है दिल-सद-पारा उस नख़चीर का
जिस के हर टुकड़े में हो पैवस्त पैकाँ तीर का