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ग़ज़ल
तमन्ना-ए-मुहाल-ए-दिल को जुज़्व-ए-ज़िंदगी कर के
फ़साना ज़ीस्त का पेचीदा करता जा रहा हूँ मैं
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
पेचीदा मसाइल के लिए जाते हैं इंग्लैण्ड
ज़ुल्फ़ों में उलझ आते हैं शामत है तो ये है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मैं ख़ुद अपनी ग़ज़लें अक्सर पढ़ता हूँ हैरानी से
कैसे पेचीदा बातें कह लेता हूँ आसानी से
सय्यद सरोश आसिफ़
ग़ज़ल
इतने बरसों बा'द भी दोनों कैसे टूट के मिलते हैं
तू है कितना सादा-दिल और हम कितने पेचीदा हैं