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ग़ज़ल
पान चबा और आईने में देख के अपने होंटों को
क्या क्या हँस हँस देवेगी और क्या क्या देखे-भालेगी
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
क्यूँ पास मिरे आ कर यूँ बैठे हो मुँह फेरे
क्या लब तिरे मिस्री हैं मैं जिन को चबा जाता
मीर मेहदी मजरूह
ग़ज़ल
भला ना ग़ुस्से से हम चबाएँ बताओ क्यूँ-कर न होंट अपना
रक़ीब करते हैं हम से बातें चबा चबा कर चबा चबा कर
हकीम आग़ा जान ऐश
ग़ज़ल
चबा चबा के न तू ज़िक्र-ए-ग़ैर मुझ से कर
तिरे मज़ाक़ में जाएगी मेरी जाँ क़ासिद
सय्यद अहमद हुसैन शफ़ीक़ लखनवी
ग़ज़ल
चबा के लफ़्ज़ों को थूक डाला ज़बानें आँखों की काट डालीं
कोई नहीं अब समझ सकेगा हमारी वहशत हमारे ग़म को