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ग़ज़ल
छुरी थी कुंद तेरी या तिरे क़ातिल की ओ बिस्मिल
तड़प भी तू तिरी गर्दन पे क्यूँ इल्ज़ाम आएगा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
अब तिरी यादों के निश्तर भी हुए जाते हैं कुंद
हम को कितने रोज़ अपने ज़ख़्म छीले हो गए
शाहिद कबीर
ग़ज़ल
कुंद ख़ंजर की शिकायत मैं करूँ क्यूँ 'नातिक़'
सच तो ये है कि मुझे यूँ ही मज़ा मिलता है
नातिक़ लखनवी
ग़ज़ल
हो नहीं पाती कोई आसान सी मुश्किल भी सहल
कुंद सा हर नाख़ुन-ए-तदबीर है तेरे बग़ैर
आनंद नारायण मुल्ला
ग़ज़ल
मुझे बर्बाद कर के दोस्त पछताने से क्या हासिल
चुरा कारे कुनद आक़िल कि बाज़ आबिद पशेमानी
शौक़ बहराइची
ग़ज़ल
ज़बीहुल्लाह के हुल्क़ूम पर जो कुंद हो जाए
ख़लीलुल्लाह का मुझ को वो ख़ंजर याद आता है