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ग़ज़ल
नहीं मालूम कि मातम है फ़लक पर किस का
रोज़ क्यूँ चाक गिरेबान-ए-सहर होता है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
हम तो यूँ ख़ुश थे कि इक तार गरेबान में है
क्या ख़बर थी कि बहार इस के भी अरमान में है
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मुमकिन है कि इक रोज़ तिरी ज़ुल्फ़ भी छू लें
वो हाथ जो मसरूफ़-ए-गरेबान रहे हैं