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ग़ज़ल
इक यही ग़म खाए जाता है कि उस का होगा क्या
कौन रक्खेगा मिरा हुस्न-ए-यक़ीं मरने के बाद
गणेश बिहारी तर्ज़
ग़ज़ल
सारी उम्र गँवा दी 'क़ैसर' दो गज़ मिट्टी हाथ लगी
कितनी महँगी चीज़ थी दुनिया कितनी सस्ती छोड़ चले
क़ैसर-उल जाफ़री
ग़ज़ल
तिरे उस ख़ाक उड़ाने की धमक से ऐ मरी वहशत
कलेजा रेग-ए-सहरा का भी दस दस गज़ थिलक्ता था
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
उन लोगों के तो गर्द न फिर सब हैं लिबासी
सौ गज़ भी जो ये फाड़ें तो इक गज़ भी न वारें