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ग़ज़ल
मुनाफ़िक़ दावा-ए-ईमाँ में सच्चा हो नहीं सकता
कि गोबर फिर भी गोबर है वो हलवा हो नहीं सकता
वहिद अंसारी बुरहानपुरी
ग़ज़ल
उड़ते पंछी प्यासी नज़रों की पहचान से आरी हैं
तेज़ हुई जाती हैं किरनें थाप सहेली गोबर थाप
अहसन शफ़ीक़
ग़ज़ल
लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश को बाले तक
उस को फ़लक चश्म-ए-मह-ओ-ख़ुर की पुतली का तारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ग़म-ए-इश्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खाते
ये वो ज़हर है कि आख़िर मय-ए-ख़ुश-गवार होता
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
मैं हूँ सदफ़ तो तेरे हाथ मेरे गुहर की आबरू
मैं हूँ ख़ज़फ़ तो तू मुझे गौहर-ए-शाहवार कर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
तमन्ना दर्द-ए-दिल की हो तो कर ख़िदमत फ़क़ीरों की
नहीं मिलता ये गौहर बादशाहों के ख़ज़ीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हश्र में पेश-ए-ख़ुदा फ़ैसला इस का होगा
ज़िंदगी में मुझे उस गब्र को तरसाने दो