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ग़ज़ल
ये किस की लाश बे-गोर-ओ-कफ़न पामाल होती है
ज़मीं जुम्बिश में है बरहम निज़ाम-ए-आसमाँ तक है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
ख़मोशी में निहाँ ख़ूँ-गश्ता लाखों आरज़ूएँ हैं
चराग़-ए-मुर्दा हूँ मैं बे-ज़बाँ गोर-ए-ग़रीबाँ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ऐ सबा औरों की तुर्बत पे गुल-अफ़्शानी चंद
जानिब-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ भी कभी आया कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
'अजब दुनिया-ए-हैरत आलम-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ है
कि वीराने का वीराना है और बस्ती की बस्ती है