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ग़ज़ल
होंटों से जो बात हुई वो नील-गगन तक जा पहुँची
आँखों ने जो लिक्खा दिल पर अक्षर अक्षर याद रहा
कुंवर बेचैन
ग़ज़ल
टाइप-राइटर गुंग-महल है शब्दों का दे दान
काग़ज़ अक्षर 'अश्क'-ओ-तबस्सुम सभी रचाएँ दास
प्रेम पाल अश्क
ग़ज़ल
सच कहते हैं शैख़ 'अकबर' है ताअत-ए-हक़ लाज़िम
हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
'फ़िराक़' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
अफ़्सुर्दगी ओ ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं 'अकबर'
काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दीं-दार नहीं हूँ