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ग़ज़ल
ख़ुदा ने अज़्मत-ए-इंसानियत बख़्शी उन्हें ऐ 'शाद'
तसव्वुफ़ में ख़ुदी अब शादमाँ मा'लूम होती है
रहीमुल्लाह शाद
ग़ज़ल
जिन को आ जाता है जीने का सलीक़ा 'अज़्मत'
मुस्कुराते हैं सर-ए-दार तुम्हें क्या मालूम
अज़मत भोपाली
ग़ज़ल
मिरी हर बात 'अज़्मत' तर्जुमान-ए-अहल-ए-आलम है
ये दुनिया मुझ को मेरी हम-नवा मालूम होती है
अज़मत भोपाली
ग़ज़ल
मैं अपनी दास्तान-ए-ग़म को क्या उन्वान दूँ 'अज़्मत'
मुरत्तब दिल के औराक़-ए-परेशाँ हो भी सकते हैं
अज़मत भोपाली
ग़ज़ल
गुरेज़ाँ जादा-ए-इंसानियत से आदमी कब तक
छुपाई जाएगी तारीकियों में रौशनी कब तक
उस्ताद अज़मत हुसैन ख़ाँ
ग़ज़ल
सच तो ये है कि हमें बाग़-ए-जहाँ में अज़्मत
सैकड़ों ख़ार मिले इक गुल-ए-तर से पहले
अज़मत अब्दुल क़य्यूम ख़ाँ
ग़ज़ल
इन्क़िलाबात में तूफ़ान-ए-सितम में अज़्मत
शान-ए-अल्ताफ़-ओ-करम याद करूँ या न करूँ
अज़मत अब्दुल क़य्यूम ख़ाँ
ग़ज़ल
तारीक रास्ते में भी 'अज़्मत' हमारे साथ
ज़ख़्म-ए-वफ़ा में रंग-ए-मह-ओ-कहकशाँ रहे
अज़मत अब्दुल क़य्यूम ख़ाँ
ग़ज़ल
दोस्तों में तो कोई तुम को न पूछेगा 'सलाम'
अज़्मत-ए-रौशनी-ए-बज़्म-ए-हरीफ़ाँ हो ज़रूर