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ग़ज़ल
ज़बान-ए-हक़ किसी के जब्र से भी रुक नहीं सकती
कि नेज़े की अनी पर भी टँगे सर बोल उठते हैं
हैदर क़ुरैशी
ग़ज़ल
वो महकता हुआ झोंका था कि नेज़े की अनी
छू के गुज़रा है तो ख़ूँ-बार किया है मुझ को