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ग़ज़ल
एक ये दिन जब अपनों ने भी हम से नाता तोड़ लिया
एक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
समझते ही नहीं नादान कै दिन की है मिल्किय्यत
पराए खेतों पे अपनों में झगड़ा होने लगता है
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
अपनों ने वो रंज दिए हैं बेगाने याद आते हैं
देख के उस बस्ती की हालत वीराने याद आते हैं
हबीब जालिब
ग़ज़ल
इक हम हैं कि ग़ैरों को भी कह देते हैं अपना
इक तुम हो कि अपनों को भी अपना नहीं कहते
नवाज़ देवबंदी
ग़ज़ल
हम ने तो सोचा भी नहीं था ऐसा दिन भी आएगा
अपनों का यूँ रुख़ बदलेगा सब से जी भर जाएगा
जाफ़र अब्बास
ग़ज़ल
वो लोग जिन्हें कल तक दावा था रिफ़ाक़त का
तज़लील पे उतरे हैं अपनों ही के नामों की