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ग़ज़ल
आँख कहती है हमें अब अश्क-बारी छोड़ दें
आँसुओं से दिल की कैसे आब्यारी छोड़ दें
मन्नान क़दीर मन्नान
ग़ज़ल
लहू से आब्यारी करने वालो कुछ तो सोचो
ये सारा बाग़ बे-बर्ग-ओ-समर क्यूँ लग रहा है
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
अगर ख़ून-ए-जिगर से आब्यारी कर सको यारो
हुए हैं ख़ुश्क शाख़ों से भी ग़ुंचे और समर पैदा