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ग़ज़ल
मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का
मुरव्वत हुस्न-ए-आलम-गीर है मर्दान-ए-ग़ाज़ी का
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जितने सर हैं उतने सौदे क्या ख़ता नासेह मिरी
मैं ही इक क़ैदी नहीं उस ज़ुल्फ़-ए-आलम-गीर का
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
हक़ीक़त मिट नहीं सकती बदल देने से तारीख़ें
हर इक फ़न में हमारा हुस्न-ए-आलम-गीर बोले है
रहबर जौनपूरी
ग़ज़ल
वो आलमगीर जल्वा और हुस्न-ए-मुश्तरक तेरा
ख़ुदा जाने इन आँखों को हुआ किस किस पे शक तेरा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
मोहब्बत ही बिना ऐ 'बर्क़' है तख़्लीक़ आलम की
मोहब्बत ही को हर आलम में आलम-गीर देखेंगे
रहमत इलाही बर्क़ आज़मी
ग़ज़ल
वो तन्हा ख़ाकसारी थी निभाया उम्र भर उस ने
मिज़ाज-ए-शाह-ए-आलमगीर वर्ना सख़्त रक्खा था
खुर्शीद अकबर
ग़ज़ल
ढा दे जो इंसान के दिल में रंग ओ नस्ल की दीवारें
कोई तो दस्तूर-ए-मोहब्बत ऐसा आलमगीर लिखो