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ग़ज़ल
मौज-ए-बहर-ए-ग़म से खेलें क्यों न आशुफ़्ता-मिज़ाज
हिम्मत-ए-दिल और बढ़ जाती है तूफ़ाँ देख कर
रियाज़ ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल
अपनी आशुफ़्ता मिज़ाजी के समर बोल पड़े
मैं जो ख़ामोश हुआ ज़ख़्म-ए-जिगर बोल पड़े