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ग़ज़ल
देखें इस कशाकश का इख़्तिताम हो कब तक
जागने की ख़्वाहिश है हौसला है ख़्वाबों का
कृष्ण बिहारी नूर
ग़ज़ल
ये रात आ के मुझे फिर से जोड़ देती है
मैं टूट जाता हूँ दिन इख़्तिताम करते हुए
रुख़्सार नाज़िमाबादी
ग़ज़ल
आख़िर में बस निशाँ हैं 'सहर' कुछ सवालिया
फिर इस के बअ'द दास्ताँ का इख़्तिताम है
सिदरा सहर इमरान
ग़ज़ल
ये इब्तिदा है कोई इख़्तिताम थोड़ी है
है शाम-ए-वस्ल बिछड़ने की शाम थोड़ी है
ज़ुबैर अहमद तन्हा मलिक रामपुरी
ग़ज़ल
इख़्तिताम-ए-बे-सुकूँ थी इब्तिदा-ए-आशिक़ी
ज़िंदगी को लफ़्ज़-ए-बे-मअ'नी बनाना याद है