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ग़ज़ल
चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
सरशार सैलानी
ग़ज़ल
छोड़ा न मुझ में ज़ोफ़ ने रंग इख़्तिलात का
है दिल पे बार नक़्श-ए-मोहब्बत ही क्यूँ न हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मेरा और उस का इख़्तिलात हो गया मिस्ल-ए-अब्र-ओ-बर्क़
उस ने मुझे रुला दिया मैं ने उसे हँसा दिया
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
कहते हैं अहल-ए-क़िमार आपस में गर्म-ए-इख़्तिलात
हम तो डब में सौ रूपे रखते हैं तुम रखते हो के
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
न इख़्तिलात न वो आँख है न वो चितवन
ये क्या सबब कि पड़ा फ़र्क़ सब क़रीनों में
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
मेरा और उस का इख़्तिलात हो गया मिस्ल-ए-अब्र-ओ-बर्क़
उस ने मुझे रुला दिया मैं ने उसे हँसा दिया
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
उधर है इख़्तिलात अग़्यार से उस यार-ए-जानी का
इधर दिल ज़िक्र उस के का 'मुहिब' दिन रात शामिल है
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
'क़ाएम' हो किस तरह से बहम शक्ल-ए-इख़्तिलात
वो इस ग़ुरूर-ए-नाज़ में हम इस हिजाब में
क़ाएम चाँदपुरी
ग़ज़ल
नीला हुआ है मुँह गुल-ए-सौसन का बाग़ में
लेता है इख़्तिलात में क्या चुटकियाँ बसंत