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ग़ज़ल
तुग़रा-ए-इम्तियाज़ है ख़ुद इब्तिला-ए-दोस्त
उस के बड़े नसीब जिसे आज़माए दोस्त
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
कोई बड़ा हो कि या हो छोटा कोई गदा हो कि बादशह हो
इस इब्तिला का कमाल ये है कि सब को यकसाँ किया हुआ है
असलम गुरदासपुरी
ग़ज़ल
है कुछ ग़लत सा मिरी ही सरिश्त में 'शाहीं'
मैं ख़ुद ही अपनी हर इक इब्तिला के पीछे हूँ
जावेद शाहीन
ग़ज़ल
कोई बड़ा हो कि या हो छोटा कोई गदा हो कि बादशाह हो
इस इब्तिला का कमाल ये है कि सब को यकसाँ किया हुआ है
असलम गुरदासपुरी
ग़ज़ल
कितनी सदियाँ ना-रसी की इंतिहा में खो गईं
बे-जहत नस्लों की आवाज़ें ख़ला में खो गईं