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ग़ज़ल
तूबा-ए-बहिश्ती है तुम्हारा क़द-ए-रा'ना
हम क्यूँकर कहें सर्व-ए-इरम कह नहीं सकते
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
जो शख़्स मुक़ीम-ए-रह-ए-दिलदार हैं ज़ाहिद
फ़िरदौस लगे उन को न बाग़-ए-इरम अच्छा
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
हर्फ़-ए-इंकार है क्यूँ नार-ए-जहन्नम का हलीफ़
सिर्फ़ इक़रार पे क्यूँ बाब-ए-इरम खुलता है
वहीद अख़्तर
ग़ज़ल
दिल-ए-अहबाब में घर है शगुफ़्ता रहती है ख़ातिर
यही जन्नत है मेरी और यही बाग़-ए-इरम मेरा
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
खुला रक्खा 'इरम' ने दिल का दरवाज़ा तिरी ख़ातिर
मिरा ही तज़्किरा होगा वफ़ा की दास्तानों में