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ग़ज़ल
बिछा रहा हूँ कई जाल इर्द-गर्द तिरे
तुझे जकड़ने की ख़्वाहिश में कब से बैठा हों
अब्दुर्रहीम नश्तर
ग़ज़ल
मंडला रहा है आज जो साहिल के इर्द-गर्द
तूफ़ान को तो तुम ने इशारा नहीं किया
राम अवतार गुप्ता मुज़्तर
ग़ज़ल
मैं महव-ए-गुफ़्तुगू था तुम्हारी नज़र के साथ
और मेरे इर्द-गर्द था बीनाइयों का रक़्स