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ग़ज़ल
आज समझा ठोकरों के ब'अद भी है ज़िंदगी
क्यूँ अता मुझ को 'मुसाफ़िर' ये सिफ़त करता रहा
विलास पंडित मुसाफ़िर
ग़ज़ल
बार-हा जी में ये आई उम्र-ए-रफ़्ता से कहूँ
शाम होने को है ऐ भूले मुसाफ़िर घर तो आ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
काट दी वक़्त ने ज़ंजीर-ए-तअल्लुक़ की कड़ी
अब मुसाफ़िर को कोई रोकने वाला भी नहीं
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
इल्तिजा-ए-वस्ल पर महशर में वो कहने लगे
अपने वा'दे की वफ़ा फ़िल-फ़ौर कोई क्यूँ करे
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ये तख़सीस-ए-चमन क्या इल्तिजा-ए-बाग़बाँ कैसी
बहुत ऐ हिम्मत-ए-परवाज़ गुंजाइश जहाँ में है