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ग़ज़ल
तमाम इल्लत-ए-दरमाँदगी है क़िल्लत-ए-शौक़
तपिश हुई पर-ए-पर्वाज़-ए-मुर्ग़-ए-जाँ के लिए
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
ग़ज़ल
पूछा जो मैं हकीम से इल्लत-ए-कुन-फ़काँ है कौन
सोच के उस ने ये कहा ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
उस को नतीजे इल्लत-ए-ग़ाई की इस को धुन
फ़र्क़ इस क़दर ही बे-ख़बर ओ बा-ख़बर में है
दत्तात्रिया कैफ़ी
ग़ज़ल
हबीब मूसवी
ग़ज़ल
अपनी इल्लत कि हम ईफ़ा किए जाते हैं वो अह्द
उन की अज़्मत कि वो हर आन मुकर जाते हैं
ग़ुलाम नबी नाज़िर
ग़ज़ल
ला-रैब तू है 'इल्लत-ए-तज्सीम से बरी
देखूँ दरून-ए-क़ल्ब तिरे नक़्श-ए-पा को मैं
मोहम्मद शोएब मिर्ज़ा
ग़ज़ल
लबालब शीशा-ए-तहज़ीब-ए-हाज़िर है मय-ए-ला से
मगर साक़ी के हाथों में नहीं पैमाना-ए-इल्ला
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
तिरी शमशीर-ए-अबरू सीं हुए सन्मुख व इल्ला न
अजल की तेग़ सीं ज्यूँ आरा दंदाने हुए होते