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ग़ज़ल
कतराते हैं बल खाते हैं घबराते हैं क्यूँ लोग
सर्दी है तो पानी में उतर क्यूँ नहीं जाते
महबूब ख़िज़ां
ग़ज़ल
क़तरात-ए-अरक़ हैं नहीं ये सिल्क-ए-गुहर हैं
क्या अक्स-फ़गन उस रुख़-ए-गुलनार के ऊपर
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
ग़ज़ल
अब किसी को देख कर इक सम्त मुड़ जाते हैं हम
जिस से मिलना चाहते हैं उस से कतराते हैं हम
मुसहफ़ इक़बाल तौसिफ़ी
ग़ज़ल
मुशफ़िक़ ख़्वाजा
ग़ज़ल
इस तरह के भी हमें मिलते हैं अहबाब 'अज़ीज़'
हम से कतराते बहुत हैं वो जहाँ मिलते हैं
अज़ीज़ मुरादाबादी
ग़ज़ल
लुटने वालों से मिज़ाज-ए-शाम-ए-ग़ुर्बत पूछिए
उन को क्या मालूम जो तूफ़ाँ से कतराते रहे
नाज़िश सह्सहरामी
ग़ज़ल
चमक रहे हैं जो क़तरात-ए-ख़ूँ सर-ए-मिज़्गाँ
ये एहतिमाम-ए-चराग़ाँ है आप ही के लिए