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ग़ज़ल
'ताबिश' का क़यामत से यक़ीं उठ न गया हो
कुछ दिन से वो ज़िक्र-ए-क़द-ओ-क़ामत नहीं करता
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
देखा है ये परछाईं की दुनिया में कि अक्सर
अपने क़द-ओ-क़ामत से भी कुछ लोग बड़े हैं
अख़्तर होशियारपुरी
ग़ज़ल
सुकून-ए-दिल गँवा बैठोगे तुम फ़ितरत से लड़ने में
जो चाहो आफ़ियत अपने क़द-ओ-क़ामत में ख़ुश रहना