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ग़ज़ल
मैं तो मैं चौंक उठी है ये फ़ज़ा-ए-ख़ामोश
ये सदा कब की सुनी आती है फिर कानों में
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
काशानों में रहने वाले आबाद करें वीरानों को
ये दीवाने हैं दीवाने क्या कहते हैं दीवानों को
अबुल फ़ितरत मीर ज़ैदी
ग़ज़ल
क़हक़हे दर्द की तम्हीद भी हो सकते हैं
बिजलियाँ भी कभी टकराती हैं काशानों से
क़ाज़ी सय्यद ख़ुर्शीदुद्दीन ख़ुर्शीद
ग़ज़ल
'निशा' घबरा के काशानों से वीरानों में आ पहुँचे
बहार आई तो अहल-ए-दिल बयाबानों में आ पहुँचे
कृष्ण सोनी निशा
ग़ज़ल
बिजलियों को भी ताब न थी जिन की वो नशेमन ख़ुद फूँके
पर मारें न परिंदे जहाँ लूटा ऐसे काशानों को