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ग़ज़ल
ये अहल-ए-फ़न में भी कीड़े निकाल देते हैं
हसद का तौक़ जो हैं गर्दनों में डाले हुए
संजय मिश्रा शौक़
ग़ज़ल
अब जाने दूल्हा-भाई में क्या कीड़े पड़ गए
जाने को मनअ' करते हैं बाजी के घर मुझे
साजिद सजनी लखनवी
ग़ज़ल
आज़ादी के फल रंगीं रंगीं खाने में बहुत मीठे मीठे
कीड़े हैं मगर अंदर अंदर मालूम नहीं क्या होना है
शौक़ बहराइची
ग़ज़ल
मकड़ियों के जालों में जैसे कीड़े हों बे-बस
उलझे हैं कुछ ऐसे ही अहल-ए-फ़िक्र उलझन में