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ग़ज़ल
मय-ए-दो-आतिशा-ए-कुफ़्र-ओ-दीं से ख़ल्क़ है मस्त
मगर शराब ये हम-मशरबो हराम नहीं
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
ग़ज़ल
या कुफ़्र-ओ-दीं के जानने वालों से क्या ग़रज़
याँ कुफ़्र-ओ-दीं के मानने वालों से इश्क़ है
ख़ुर्शीदुल इस्लाम
ग़ज़ल
ग़लत-बयाँ ये फ़ज़ा महर ओ कीं दरोग़ दरोग़
शराब लाओ ग़म-ए-कुफ़्र-ओ-दीं दरोग़ दरोग़
अज़ीज़ हामिद मदनी
ग़ज़ल
'इशरत' बता दो राज़-ए-मोहब्बत ज़माने को
दुनिया में क्यों ये कश्मकश-ए-कुफ़्र-ओ-दीं रहे
इशरत जहाँगीरपूरी
ग़ज़ल
मिरी नज़रों में अब बाक़ी नहीं है ज़ौक़-ए-कुफ़्र-ओ-दीं
मैं इक मरकज़ पे अब दैर-ओ-हरम महसूस करता हूँ
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
मिल्लत-ए-कुफ़्र-ओ-दीं की बहस गर्म थी ख़ानक़ाह में
इतने में कोई मय पिए दस्त-ब-जाम आ गया