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ग़ज़ल
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
मारें जो सर पे सिल को उठा कर क़लक़ से हम
दस पाँच टुकड़े सर के हों और सिल के चार पाँच
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
महशर बदायुनी
ग़ज़ल
ख़ुदा के हाथ है अपना अब ऐ 'क़लक़' इंसाफ़
बुतों से हश्र में होगा मुक़ाबला दिल का
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
गर ग़ैर से कुछ तुम को मोहब्बत नहीं होती
तो हम को ये रश्क-ए-क़लक़-अफ़्ज़ा नहीं होता