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ग़ज़ल
ख़ुश्क खजूर के पत्तों से जब नींद का बिस्तर सजता था
ख़्वाब-नगर की शहज़ादी गलियों में आन निकलती थी
हम्माद नियाज़ी
ग़ज़ल
दूल्हा ख़ुद भी लूट रहा है मिस्री बादाम और खजूर
ससुरे को भी मारे धक्का ये मालूम न वो मालूम
पागल आदिलाबादी
ग़ज़ल
मिरे मुक़द्दर में जो लिखा था नसीब से वो पहुँच न पाया
गिरा तो था आसमान से कुछ खजूर में रह गया अटक कर
नातिक़ लखनवी
ग़ज़ल
चला के सीने पे ख़ंजर ये देख लो तुम ख़ुद
दुखों से क़ल्ब मेरा चूर-चूर निकलेगा
ज़ुबैर अहमद तन्हा मलिक रामपुरी
ग़ज़ल
मरने वालो आओ अब गर्दन कटाओ शौक़ से
ये ग़नीमत वक़्त है ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है