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ग़ज़ल
गाँठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या डोरी
लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है
हस्तीमल हस्ती
ग़ज़ल
मुमकिन है अब वक़्त की चादर पर मैं करूँ रफ़ू का काम
जूते मैं ने गाँठ लिए हैं गुदड़ी मैं ने सी ली है
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
नफ़ा समझ के बसे थे तुम्हारे कूचे में
मगर जो गाँठ में था वो भी सब लुटा बैठे
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ग़ज़ल
दुनिया-दारी का हर पहलू बरत के देखा 'इश्क़ी' ने
गाँठ गिरह की खो कर उस ने सब कुछ भर पाया लोगो
इलियास इश्क़ी
ग़ज़ल
रिश्ते नाते गाँठ गिरह से रोज़ उलझते जाते हैं
उलझन की है रीत पुरानी इस को क्या सुलझाओ हो
रिज़्वानुल्लाह
ग़ज़ल
न जाने कौन सी उलझन रवाँ सीने में रहती है
ब-हर-लम्हा मिरे तार-ए-नफ़स में गाँठ पड़ती है