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ग़ज़ल
ज़िंदगी के दश्त में आया न जब अक्स-ए-बहार
मैं ने ख़ुद को ख़ुद दिखाया वहशतों का सिलसिला
बहारुन्निसा बहार
ग़ज़ल
'बहार' लूट लिया किस ने क़ाफ़िला दिल का
ये किस ने ज़ुल्म के हाथों में रहबरी दे दी
अब्दुल्लाह बहार
ग़ज़ल
तितलियों को रोक लो जाने न दो बाद-ए-सबा
अब 'बहार'-ए-बे-ख़िज़ाँ का है गुज़ारा रेत पर
बहारुन्निसा बहार
ग़ज़ल
हज़रत-ए-अय्यूब को क्या पढ़ लिया तुम ने 'बहार'
साबिरों की ज़िंदगी पर तब्सिरा करने लगे
अब्दुल्लाह बहार
ग़ज़ल
इक मिलन-रुत आई थी मेरे लिए लेकिन 'बहार'
इस फ़ज़ा में दफ़'अतन शाम-ए-जुदाई हो गई