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ग़ज़ल
नक़्श-ए-तौहीद है हर नक़्श-ए-जबीन-ए-सज्दा
कहीं का'बे का तो पत्थर दर-ए-जानाँ में नहीं
चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी
ग़ज़ल
बे-ख़ुदी-ए-ज़ौक़-ए-सज्दा ने ये आलम कर दिया
सर तो सर अब तो निगाहें भी उठा सकता नहीं
कैफ़ मुरादाबादी
ग़ज़ल
अल्लह अल्लह शौक़-ए-सज्दा-रेज़ी-ए-दैर-ओ-हरम
ये जबीं झुकते ही तेरे आस्ताँ तक आ गई
मुस्लिम मलेगाँवी
ग़ज़ल
मज़ाक़-ए-ज़ौक़-ए-सज्दा ना-मुकम्मल रह नहीं सकता
अगर मा'दूम उन का संग-ए-दर होगा तो क्या होगा
राफ़्त बहराइची
ग़ज़ल
वुफ़ूर-ए-शौक़-ए-सज्दा में कहाँ सर फोड़ते जा कर
जो अपने सामने उन का न संग-ए-आस्ताँ होता
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
ग़ज़ल
मता-ए-ज़ौक़-ए-सज्दा से अभी तस्कीं नहीं होती
ख़ुदा जाने जुनून-ए-रोज़-अफ़्ज़ूँ की दवा क्या है
सय्यद बशीर हुसैन बशीर
ग़ज़ल
कमाल-ए-ज़ौक़-ए-सज्दा इस से बढ़ कर और क्या होगा
वहीं वो नक़्श-ए-पा उभरा जहाँ रख दी जबीं मैं ने
ओम प्रकाश लाग़र
ग़ज़ल
गराँ ज़मीन-ए-किश्त-ए-ग़म-ए-जिगर को नक़्द की अदा
मसर्रतों का वहम था उधार कर लिया गया
फ़रहत नादिर रिज़्वी
ग़ज़ल
ज़मीन-ए-कूचा-ए-दिल-दार ने क्या पाँव पकड़े हैं
मिली दीवानगान-ए-इश्क़ को ज़ंजीर मिट्टी की