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ग़ज़ल
'ज़मीर'-ए-सरकश-ओ-आशुफ़्ता-सर पे जाने क्या गुज़री
उसूलों से वो कर के आज समझौता निकलता है
ज़मीर अहमद
ग़ज़ल
'ज़मीर' अंजाम-ए-उल्फ़त पर लरज़ जाता है दिल अक्सर
हँसी आती है जिस दम आँख मेरी डबडबाती है
ख़्वाजा ज़मीर
ग़ज़ल
ज़िंदगी वक़्फ़-ए-ख़याल-ए-दोस्त है अपनी 'ज़मीर'
अब किसी गोशे में एहसास-ए-अना मिलता नहीं
ख़्वाजा ज़मीर
ग़ज़ल
ज़ीनत लुग़त की हर्फ़-ए-हक़ीक़त है ऐ 'ज़मीर'
बातिल का हर फ़रेब-ए-हसीं खा रहे हैं हम
ख़्वाजा ज़मीर
ग़ज़ल
पूछो तो ‘ज़मीर’-ए-जिगर-अफ़गार कहाँ है
जिस दिन से गया वो न फिर उस की ख़बर आई