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ग़ज़ल
बर-हक़ है तू पत्थर पत्थर फूल खिलाने वाले
ज़रख़ेज़ी में बंजर डाले जैसी तेरी मर्ज़ी
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
ग़ज़ल
लहू पर अपने ही मौक़ूफ़ थी धरती की ज़रख़ेज़ी
सभी दहक़ाँ यहाँ खेतों को बंजर छोड़ जाते थे
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
क्यूँ जीते-जी हिम्मत हारें क्यूँ फ़रियादें क्यूँ ये पुकारें
होते होते हो जाएगा आख़िर जो भी होना होगा
मीराजी
ग़ज़ल
बिछड़ना भी तुम्हारा जीते-जी की मौत है गोया
उसे क्या ख़ाक लुत्फ़-ए-ज़िंदगी जिस से जुदा तुम हो