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ग़ज़ल
ज़ीस्त करने को बहुत चश्म-ए-फुसूँ-कार मुझे
वो मिरे इश्क़ के ज़रताब से कम वाक़िफ़ है
नादिया अंबर लोधी
ग़ज़ल
कहाँ वो साँवली शामें कहाँ वो रेशमी बातें
मगर इक लम्स-ए-हैराँ का अभी ज़रनाब ज़िंदा है
नोशी गिलानी
ग़ज़ल
हम तिरे क़र्या-ए-जाँ-ताब में इतना ठहरे
या'नी इक लम्हा गुज़ार आए हैं उजलत के बग़ैर
पीरज़ादा क़ासीम
ग़ज़ल
'ज़रयाब' से ये तुम ने कहा चाहता हूँ मैं
पत्थर सी हो गई है नज़र तुम को इस से क्या
हाजरा नूर ज़रयाब
ग़ज़ल
बहुत हस्सास है 'ज़रयाब' को झुकना नहीं आता
क़बा फूलों की भी हो तो क़बा से चोट लगती है