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ग़ज़ल
दरख़्तों को हरा रखने के ज़िम्मेदार थे दोनों
जो सच पूछो बराबर के हैं मुजरिम बाग़बाँ और हम
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
निगाह-ए-नाज़ से लूटे हैं मेरे क़ल्ब-ओ-जिगर
असीर-ए-ज़ुल्फ़ किया उस के ज़िम्मेदार हो तुम
ग़ुबार किरतपुरी
ग़ज़ल
न है उस को मुझ से ग़फ़लत न वो ज़िम्मेदार कम है
प अलग है उस की फ़ितरत वो वफ़ा-शिआर कम है
शिफ़ा कजगावन्वी
ग़ज़ल
तुम भी खिंचे खिंचे से थे हम भी बचे बचे रहे
दोनों ही ज़िम्मेदार हैं शीशे में बाल के लिए
तारिक़ क़मर
ग़ज़ल
अपनी बर्बादी का ज़िम्मेदार मैं या कोई और
ज़ेहन में हर वक़्त मेरे ये गुमाँ बढ़ता गया