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ग़ज़ल
मैदान-ए-कार-ज़ार में 'अख़्तर' कभी भी मैं
ख़ौफ़-ए-सिनान-ए-ज़िल्ल-ए-इलाही न लाऊँगा
अख़्तर शाहजहाँपुरी
ग़ज़ल
अर्ज़ी इंसाफ़ की हम ने भी लगा रक्खी है
देखिए ज़िल्ल-ए-इलाही हमें कब पूछते हैं
शहज़ाद अंजुम बुरहानी
ग़ज़ल
तख़्त-ए-फ़िरऔन पे बैठे हैं जो इंसाँ-दुश्मन
हम से कहते हैं उन्हें ज़िल्ल-ए-इलाही लिखिए
सय्यदा फ़रहत
ग़ज़ल
बैठ सकते हैं कहाँ ज़िल्ल-ए-इलाही के क़रीब
हम हैं 'ग़ालिब' के तरफ़-दार तुझे क्या मालूम
तारिक़ क़मर
ग़ज़ल
ख़ुद्दार सर था जिस्म से जो हो गया जुदा
लेकिन झुका न ज़िल्ल-ए-इलाही की शान में