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ग़ज़ल
लोटता है 'जुरअत'-ए-बेताब जाने से तिरे
यूँ उसे तड़पा के तू ऐ शोख़-ए-बे-परवा, न जा
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
देखने का जो करूँ उस के मैं दावा 'जुरअत'
मुझ में जुरअत ये कहाँ और मिरी बीनाई क्या
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
तब' कह और ग़ज़ल, है ये 'नज़ीरी' का जवाब
रेख़्ता ये जो पढ़ा क़ाबिल-ए-इज़हार न था