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ग़ज़ल
भला हम मिले भी तो क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिजक गई
बशीर बद्र
ग़ज़ल
शरीक-ए-शर्म-ओ-हया कुछ है बद-गुमानी-ए-हुस्न
नज़र उठा ये झिजक सी निकल तो सकती है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
क्यूँ झपक जाती है रह रह के तिरी बर्क़-ए-निगाह
ये झिजक किस लिए इक कुश्ता-ए-दीदार तो है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
झिजक रहा था वो कहने से कोई बात ऐसी
मैं चुप खड़ा था कि सब कुछ मिरी नज़र में था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
रिज़वानुर्रज़ा रिज़वान
ग़ज़ल
मस्लहतों की धूल जमी है उखड़े उखड़े क़दमों पर
झिजक झिजक कर उड़ते परचम देखने वाले देखता जा
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
झिजक कर मैं ने पूछा क्या कभी बाहर नहीं आता
जवाब आया उसे ख़ल्वत में इत्मीनान रहता है